Thursday, May 31, 2018

परिंदा और लेखक

खिड़की से उड़ते परिंदे को देखते हुए
उसने अपनी थ्री बी.एच.के. फ्लॅट की गैलरी खोली,
और सोचने लगा,

"ये परिंदा है कितना खूबसूरत!
सफ़ेद रंग, लाल चोंच, साफ-सुतरे पंख, घुंगराले बाल "

शायद परिंदे का नाम वो गूगल पे धुंढ़ नहीं पाया
क्युकी ऑप्शंस बोहोत आगये
वो छोड़, फिक्शन लिखने वाला ये लेखक
जिसके खयालो में पंछी-भी बाते करते है
जंगल बुक के कायदे से
अपनी मनघडन कहानी को रेटते हुए
बडी सिद्धत से पूछने लगा,

“परिंदे, तुम्हारा नाम क्या है?
अच्छा छोड़ो अपना उपनाम बतावो पहले
दिखने में तो कोई देशवासी नहीं लगते
यही के हो या दूसरे देश के?"

प्रश्नार्थक आँख मीचकके उसने 
अपने फोन की स्क्रीन की तरफ देखके बोला,
“नार्थ-ईस्ट से हो?
मतलब काफी बर्ड सेंच्युरीज है वहा इसलिए पूछा, 
अकेले ही हो?
बाकि पंछियो की टोली नहीं है साथ?
मिया, बीवी, बच्चे, माँ-बाप, गांव-शहर..."

लेखक की कहानी को किरदार मिल गया
जियोग्राफी भी मिल गयी,
थोड़ा इतिहास,
थोड़े रिस्ते-नाते का ड्रामा,
और कुछ राजीनीति के चूनिन्दा किस्से डालो
तो कहानी के बेसिक्स पुरे
क्या पता नेटफ्लिक्स-अमेझोन वाले खरीद ले?

पंछी, एक पंछी था,
वो न बोला, ना समझा
अगर बोला तो क्या बोला?
समझा तो क्या समझा?
कुछ भी नहीं पता

इतिहास-राजीनीति के वो फिक्शनल पन्ने,
शायद ही कभी किसी परिंदे के थे…

~ ज्ञानेश 

The poem was written for and presented at Asmitadarsh organized by the Realm Republic and Ambedkar University, New Delhi.